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मा नो॑ अ॒स्मिन्म॑घवन्पृ॒त्स्वंह॑सि न॒हि ते॒ अन्तः॒ शव॑सः परी॒णशे॑। अक्र॑न्दयो न॒द्यो॒३॒॑ रोरु॑व॒द्वना॑ क॒था न क्षो॒णीर्भि॒यसा॒ समा॑रत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā no asmin maghavan pṛtsv aṁhasi nahi te antaḥ śavasaḥ parīṇaśe | akrandayo nadyo roruvad vanā kathā na kṣoṇīr bhiyasā sam ārata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। नः॒। अ॒स्मिन्। म॒घ॒व॒न्। पृ॒त्ऽसु। अंह॑सि। न॒हि। ते॒। अन्तः॑। शव॑सः। प॒रि॒ऽनशे॑। अक्र॑न्दयः। न॒द्यः॑। रोरु॑वत्। वना॑। क॒था। न। क्षो॒णीः। भि॒यसा॑। सम्। आ॒र॒त॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:54» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चौअनवें सूक्त का आरम्भ है। उस के पहिले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) उत्तम धनयुक्त जगदीश्वर ! जो आप (पृत्सु) सेनाओं (अस्मिन्) इस जगत् और (परीणशे) सब प्रकार से नष्ट करनेवाले (अंहसि) पाप में हम लोगों को (माक्रन्दयः) मत फँसाइये जिस (ते) आप के (शवसः) बल के (अन्तः) अन्त को कोई भी (नहि) नहीं पा सकता वह आप (नद्यः) नदियों के समान हम को मत भ्रमाइये (भियसा) भय से (मा रोरुवत्) बार-बार मत रुलाइये, जो आप (क्षोणीः) बहुत गुणयुक्त पृथिवी के निर्माण वा धारण करने को समर्थ हैं, इसलिये मनुष्य आपको (कथा) क्यों (न) नहीं (समारत) प्राप्त होवे ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जो परमेश्वर अनन्त होने से सत्य प्रेम के साथ उसकी उपासना किया हुआ दुःख उत्पन्न करनेवाले अधर्ममार्ग से निवृत्त कर मनुष्यों को सुखी करता है, उसके अनन्त स्वरूप गुण होने से कोई भी अन्त को ग्रहण नहीं कर सकता। इस से उस ईश्वर की उपासना को छोड़ के कौन अभागी पुरुष दूसरे की उपासना करे ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्रादावीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

हे मघवन् जगदीश्वर ! यस्त्वं पृत्स्वस्मिन् परीणशेंऽहस्यस्मान् माक्रन्दयो यस्य ते तव शवसोऽन्तो नह्यस्ति स त्वमस्मान्नद्यः सरित इव मा भ्रामय भियसा मा रोरुवन्मा रोदय यस्त्वं क्षोणीर्बह्वीः पृथिवीर्निर्मातुं धर्त्तुं शक्नोषि तन्त्वा मनुष्याः कथा न समारत कथं न प्राप्नुयुः ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (अस्मिन्) जगति (मघवन्) प्रशस्तधनयुक्त (पृत्सु) सेनासु (अंहसि) पापे (नहि) निषेधार्थे (ते) तव (अन्तः) पारम् (शवसः) बलस्य (परीणशे) परितः सर्वतो नश्यन्त्यदृश्या भवन्ति यस्मिंस्तस्मिन्। अत्र घञर्थे कः प्रत्ययोऽन्येषामपि इति दीर्घश्च। (अक्रन्दयः) आह्वय (नद्यः) सरित इव (रोरुवत्) पुनः पुना रोदय (वना) सम्भक्तानि वस्तूनि (कथा) कथम् (न) निषेधे (क्षोणीः) बह्वीः पृथिवीः। क्षोणी इति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (भियसा) भयेन (सम्) सम्यक् (आरत) प्राप्नुत ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र मनुष्यैः परमेश्वरस्यानन्तत्वात् सत्यभावेनोपासितः सन्नयं दुःखजनकादधर्ममार्गान्निवर्त्य सुखयति। एतस्यानन्तरूपगुणवत्त्वात् कश्चिदप्यस्यान्तं ग्रहीतुं न शक्नोति, तस्मादेतस्योपासनं त्यक्त्वा को भाग्यहीनोऽन्यमुपासीत ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सूर्य, विद्युत, सभाध्यक्ष, शूरवीर व राज्याचे पालन इत्यादीचे विधान केलेले आहे. त्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - परमेश्वर अनंत असल्यामुळे सत्याने, प्रेमाने त्याची उपासना केल्यास तो दुःख उत्पन्न करणाऱ्या अधर्म मार्गापासून निवृत्त करून माणसांना सुखी करतो. त्याचे स्वरूप व गुण अनंत असल्यामुळे कोणालाही त्याचा अंत कळणे शक्य नाही. त्यामुळे ईश्वराची उपासना सोडून कोण अभागी मनुष्य दुसऱ्याची उपासना करील? ॥ १ ॥